दशम अध्याय : विभूतियोग (संजय की नजर से)

विभूतियोग

विभूतियोग
(श्रेष्ठता का भाव)


पिछले अध्याय में हमने ’’श्रद्धा’’ के बारे में चर्चा की जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ’’हे अर्जुन! यदि कोई दुराचारी मनुष्य भी मुझे पूरी श्रद्धा से भजता है तो मैं उसे ज्ञान प्रदान कर मुक्ति के मार्ग पर ले जाता हूं।’’ कुछ इस तरह की बात आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व कुरान में कही गई और इस्लाम धर्म बहुत बडा है। इस्लाम की एक बात जो इस अध्याय मंें बहुत पललें ही कही जा चुकी थी वह यह है कि ’अल्लाह’ की रहमत इंसानों के गुनाहों से बहुत बडी है। शायद यही बात जो लगभग 5150 वर्ष पूर्व गीता में कही गई है कि यदि कोई पापी भी मुझे भजता है तो धीरे-धीरे मैं उसे शांति का मार्ग प्रदान करता हूं।
यही हमने पिछले अध्याय में चर्चा की थी। इस अध्याय में हम जानेंगे कि ईश्वर की उत्पति केैसे हुई? पाप से मुक्ति कैसे मिले? भाव किस प्रकार के होने चाहिए? विभूति और श्रेष्ठता कैसी होनी चाहिए? श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे महाबाहो! मेरी उत्पति को तो देवता भी नहीं समझ सकते हैं और एक जगह कृष्ण कहते हैं कि मैं ही ब्रह्म हूं और ब्रह्माण्ड की रचना करता हूं। कभी-कभी हम सोचते हैं कि ये ब्रह्माण्ड कितना विशाल है। श्रीकृष्ण ऐसा इसलिए कहते हैं के देवताओं एवं महर्षियों की उत्पति से पूर्व भी मेरा अस्तित्व था तो ये कैसे संभव हो सकता है कि ये मेरी उत्पति का कारण जान सकें। यदि वैज्ञानिक रूप से इसकी व्याख्या करें तो ऊर्जा तो हमेशा ही रही है और ऊर्जा के बाद ही जीव की उत्पति हुई है। ये ऊर्जा ही तो ब्रह्म हैं ये ऊर्जा ही तो ईश्वर है। जो कण-कण मंे व्याप्त है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि हे महाबाहो! जो मुझे अजन्मा, ऊर्जा स्वरूप, अविनाशी जानकर भजते हैं वे मुझे प्राप्त होकर चिरशान्ति को प्राप्त होते हैं क्यांेकि वे मुझसे प्रेम करने लगते हैं और मैं उनसे प्रेम करने लगता हूं। एक और महत्वपूर्ण बात ’’भाव’’ की है म्उवजपवद की है देखिये अब तो विज्ञान भी कहने लगा है कि पहले म्उवजपवद आता है फिर डवअमउमदज होता है। टपइतंजपवद पहलें होता है। म्दमतहल उसके बाद बनती है। हमारे अन्दर व्याप्त ज्ञान एक भाव उत्पन्न करता है और ये भाव ऊर्जा को जन्म देता है और ऊर्जा से ही हम कर्मवान होते हैं। भाव का अच्छा होना कितना जरूरी है वे व्यक्ति जिन्हे लगता है कि उनकी भावनात्मक शक्ति कमजोर हो गई है उनके लिए यह अध्याय बहुत उपयुक्त है। उनके लिए इस भाव को समझना बहुत जरूरी है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः समझाते हैं कि इस जगत में जो इच्छाशक्ति है वही हमारा अस्तित्व है। ये इच्छा शक्ति, ज्ञान, क्षमा, शान्ति, प्रेम, करूणा, सुख-दुःख, भय-अभय, कीर्ति-अपकीर्ति, समता-करूणा ये समस्त भाव मेरी वजह से जीवों में उत्पन्न होते हैं। ’भूत’ यहां भूत का आशय जीवात्मा से है, शरीर से है। ये सभी भाव इंसान में इंसानियत पैदा करते हैं। ये सभी मेरी वजह से ही इंसान में आते हैं। यदि हम सभी ईश्वर के प्रति श्रद्धाभाव रखें तो हम सभी में ये भाव उत्पन्न हो सकते हैं और हम सभी ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं एक अच्छे इंसान बनकर। ऐसा सुनकर अर्जुन कहते हैं कि हे पुरूषोत्तम! कृपया आप मुझे अपनी विभूतियों के बारे में बताइये। अपनी श्रेष्ठता के बारे में बताइये।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन मैं समस्त भूतों में व्याप्त ’आत्मा’ हूं। मैं ही आदि -अनादि हूं। इस सृष्टि के आदि में मैं ही था, मध्य में भी मैं हूं और अन्त में मैं ही हूं। अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु, जीवों की चेतना में, ज्योतियों में सूर्य, नक्षत्रों में चंद्रमा, वेदों में सामवेद, देवों मे इंद्र, इंद्रियों में मन, रूद्रों में शंकर, राक्षसों में कुबेर, पर्वतों में सुमेरू, ऋतुओं में वसंत, छन्दों मे गायत्री मंत्र, पुरोहितों में बृहस्पति, सेनापतियों में कार्तिकेय, शास्त्रों में वज्र, गायों में कामधेनु, सर्पों में सर्पराज वासुकि, नागों में शेषनाग, जलचरों में वरूण देव, शासन करने वालों में यमराज, दैत्यों में प्रहृलाद, पशुओं मंे सिंह, पक्षियांे मंे गरूड, शस्त्रधारियों में श्रीराम, सरोवर में सागर, महर्षियों में भृगु, वाणी में ओम, वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ, घोडों में उच्चेःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, मनुष्यों में राजा, पुरूषों में सर्वश्रेष्ठ तुम कौन्तेय इन सभी में मैं ही हूं। मैं ही सृष्टि का पालन, संहार एवं सृजन करता हूं। सर्वत्र मैं ही व्याप्त हूं। एक और विशेष बात यहां कहंूगा, आज से लगभग 5150 वर्ष पूर्व जब विज्ञान ने तरक्की नहीं की थी जब हम योग नहीं कर रहे थे, जब हम क्वांटम फिजिक्स को नहीं समझे थे। जब हम केवल भाव, चिंतन एवं आत्म चिंतन कर रहे थे ऐसी दशा में ’’ऊर्जा’’ को समझना जरा सोचिये कितना मुश्किल रहा होगा और ऐसे में ये ’विभूतियोग’ ना होता तो अर्जुन को ईश्वर तत्व कैसे समझ आता। इस प्रकार विभूतियों का वर्णन करते-करते श्रीकृष्ण अर्जुन को अभय कर देते हैं, भाव शरीर को पूर्ण रूप से शुद्ध कर देते हैं। यही इस अध्याय की खास बात है। अगले अध्याय में हम श्रीकृष्ण के विश्वरूप की चर्चा करेंगे।
  Dr. Sanjay Biyani