bhagwad-geeta-chapter-15-pursotam-yog


पुरूषोत्तमयोग (जीवात्मा)


इंसान बहुत ही अद्भुत है, शक्तिशाली है उसकी सदैव ही स्वयं को जानने की इच्छा रही है। आज से लगभग 5,150 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान आपका आपसे परिचय करवाने में अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान देगा। कहा जाता है कि मात्र 45 मिनट में ही यह गूढ ज्ञान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बता दिया गया था परन्तु आज भी इसकी व्याख्या होती आ रही है, यह अत्यन्त अद्भुत वाणी है। हर बार पढने के बाद कुछ नया भाव अनुभव होता है। पिछले अध्याय में हमने गुणत्रयविभाग की बात की थी। आज जिस अध्याय के बारे में बताएंगे वह अत्यन्त विशिष्ट है। इसका नाम है ’’पुरूषोत्तम योग’’। इस अध्याय में मुख्य रूप से चार बातें की गई हैं। सबसे पहला प्रश्न है कि संसार और वैराग्य क्या है? जीवात्मा और ज्ञान क्या है? परमात्मा और भगवान का क्या मतलब है? पुरूष और पुरूषोत्तम क्या है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! इस समस्त संसार को तू पीपल के वृक्ष के समान जान। परंतु यह वृक्ष बडा अद्भुत है क्योंकि इसकी जडें ऊपर है और शाखाएँ नीचे की ओर हैं। शाखाओं को तू योनियां समझ और इसमें जो कोपले हैं उन्हे विषय समझ।
हे अर्जुन! तुम्हें बार-बार इस संसार मंे लौटना होगा, परन्तु यदि तुमने इस वृक्ष को जान लिया तो तुम्हारी गति ऊपर की ओर होगी। लेकिन ऊपर की ओर गति के लिए तुम्हें वैराग्य रूपी तलवार से इस पेड की शाखाओं को काटते हुए ईश्वरमयी होना है, मुझे समझना है। यही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है।
श्रीकृष्ण बहुत से उदाहरण ले सकते थे, परन्तु पीपल का उदाहरण क्यों लिया गया, क्योंकि पीपल पीपल का वृक्ष ही सबसे पवित्र वृक्ष है। पीपल का वृक्ष 24 घंटे ऑक्सीजन की सप्लाई करता है। अगर हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एक पीपल का वृक्ष समझ लें तो कितनी आसानी हो जाएगी, इंसान एवं इंसानी जीवन को समझना आसान हो जाएगा।
अब बात करें कि ’’वैराग्य’’ क्या है? वैराग्य का अर्थ है ’असहयोग’…जी हाँ अपनी इन्द्रियों के साथ सहयोग न करना, उन पर नियंत्रण करना ही वैराग्य है। वैराग्य का कार्य यह नहीं है कि किसी जंगल में जाकर समाधि लगा लें बल्कि वैराग्य का अर्थ है आवश्यकतानुसार वस्तुओं का उपभोग करना इसी को वैराग्य की तलवार कहा गया है।
श्रीकृष्ण कहते हैं हे अर्जुन, मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है, बाकी सब भोग योनि है, यदि तुमने उच्च कर्म किये हैं तो तुम्हें देवयोनि प्राप्त होगी। अतः हे अर्जुन! यह मनुष्य योनि अत्यन्त दुर्लभ है। 84 लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होती है अतः तुम्हे इसे खोना नहीं है बल्कि इस योनि में तुम्हे सर्वोतम कार्य करने हैं, क्यांेकि इस योनि में किये हुये कर्मों को ही मनुष्य भोगता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के समय व्यक्ति द्वारा किये गये कार्य संस्कार के रूप मंे आत्मा पर अंकित हो जाते हैं। इसे जीवात्मा कहते हैं और यही जीवात्मा उन संस्कारों को लेकर दूसरे जन्म में प्रवेश करती है। यही कारण है कि इंसान का स्वभाव बदलना बहुत मुश्किल है।

आपने देखा होगा कि हमारे बीच कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्हे हम कितना भी बदलना चाहें वे नहीं बदलते। जब हम इस अध्याय को पढते हैं तो हमें यह बात समझ में आने लगती है कि यह उनका मूल स्वभाव है। ये उनके पूर्व जन्म के संस्कार हैं…..यह निरंतर चलने वाला क्रम है। इंसान बार-बार जन्म लेता है एवं बार-बार उसके संस्कार बनते चले जाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह जीवात्मा मेरा ही तो अंश है और यह जीवात्मा कुल छः चीजों को अपनी ओर आकर्षित करती है-पांचों इन्द्रियों और एक मन। अतः समस्त कर्म इस जीवात्मा मै समाते रहते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये जीवात्मा शरीर मै स्थित है यह शरीर छोडकर जा रही है। शरीर के साथ कर्म में लगी हुई है। भला इस अज्ञात सत्ता को कोई किस प्रकार समझ सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो इस सब को जान लेता है वह ज्ञानी है बाकी सब अज्ञानी है। देखिये ना-भगवान शब्द पाँच शब्दों से मिलकर बना है।
भगवान – भ + ग + व + अ + न
भ – भूमि
ग – गगन
व – वायु
अ – अग्नि
न – जल/नीर
ये पंच महाभूत ही तो हैं जो भगवान है। श्रीकृष्ण भगवान ही तो हैं, परमात्मा ही तो हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं हे अर्जुन! सूर्य का तेज मैं हूँ, अग्नि में प्रकाश मैं ही हूँ, चन्द्रमा की शीतलता मैं ही हूँ। वे कहते हैं कि हे अर्जुन! मनुष्य के शरीर में जो प्राण हैं, मनुष्य के शरीर में जो विवेक शक्ति है वह मैं ही हूँ। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं इस संसार में दो तरह के जीव होते हैं, एक वे जो ’’क्षय’’ अर्थात् नाशवान हैं दूसरे वे जो अविनाशी, जिनका अक्षय होता है। यह जो नाश ना किया जाए इसे आत्मा कहते हैं, ये इंद्रियानुग्रह के कारण पाया जाता है। यदि इंसान स्वयं को शरीर ही जाने तो वह भी ’नाशी’ ही है, आप मानते हैं कि आप आत्मा हैं, तो आप अविनाशी हैं।
श्रीकृष्ण एक ओर पुरूषोत्तम की बात कर रहे हैं क्योंकि वे पुरूषोत्तम हैं, वे सृजन भी करते हैं तथा विनाश भी करते हैं एवं पालन भी करते हैं अतः उन्हें पुरूषोत्तम कहा गया है। इसलिए इस अध्याय को ’’पुरूषोत्तम योग’’ कहा गया है। क्योंकि पुरूषोत्तम को जान लेना ही अत्यन्त अद्भुत अनुभव है। हम सभी इस पुरूषोत्तम के अंश हैं।

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