भक्तियोग(समर्पण)

श्रीमद् भगवद् गीता के पिछले अध्याय में हमने श्री हरि के विश्वरूप दर्शन की चर्चा की जो कि बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा। इस अध्याय में अर्जुन में समता का भाव विकसित हुआ क्योंकि जब तक व्यक्ति सब कुछ स्वयं देख ना लें तब तक यह समभाव विकसित नहीं हो सकता। जब यह समता आती है तब वह स्थिरप्रज्ञ हो जाता है।

आज हम जिस अध्याय की चर्चा करेंगे उसका नाम है ’’भक्तियोग’’। इसमें विज्ञान की चर्चा भी समाहित है । हम विज्ञान में Organism पढते हैं इसे और सूक्ष्म करें तो यह Organ System म परिवर्तित हो जाता है Organ System का सूक्ष्म रूप Organ है Organ का सूक्ष्म स्वरूप Tissue है, Tissue का सूक्ष्म स्वरूप Cell है तथा Cell को सूक्ष्म करें तो वह Molecule में परिवर्तित हो जाता है तथा Molecule का अतिसूक्ष्म रूप । Atom है। । Atom का भी सूक्ष्म स्वरूप Proton, Neutron व Electron है एवं इसके आगे है Energy जो कि विज्ञान का Advance रूप है। यही Atomic Energy सबसे सूक्ष्म सत्ता है यही तो ईश्वर का रूप है। भला हम इन्हे इस सांसारिक नेत्रों से किस प्रकार देख सकते हैं तभी तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान किये ताकि वह उस ’’ऊर्जास्वरूप विश्वरूप’’ के दर्शन कर सकें।
इस अध्याय मंे मुख्यतः चार बातों की चर्चा करेंगे पहली बात कि व्यक्त और अव्यक्त क्या है? शांति कैसे प्राप्त कर सकते हैं? मन को स्थिर कैसे बनाएं? एवं प्रेम क्या है? ये चार बातें भक्तियोग का मर्म है।

श्रीकृष्ण कहते हैं-हे अर्जुन! इस संसार में दो तरह के योगी हैं एक वे हैं जो पूरा ध्यान मुझमें ही लगाते हैं मुझी को भजते हैं एवं अंत मे मुझमें ही लीन हो जाते हैं एवं दूसरे योगी मेरे अव्यक्त रूप को भजते हैं, मुझे निराकार स्वरूप में भजते हैं, जो स्वयं पर भरोसा करते हैं कि ये दोनों ही मार्ग योगियों के हैं। दोनों ही मार्ग भक्ति के हैं। अर्जुन कहते हैं कि हे योगेश्वर! आप मुझे बताइये कि मैं आपको व्यक्त रूप में भजूं या अव्यक्त रूप में आप पर विश्वास करूं या स्वयं पर। हमारे मन में भी कुछ इसी प्रकार के प्रश्न उठते हैं।
देखिए यदि हम साकार रूप में ईश्वर को भजते हैं तो ईश्वर पर हमारा ध्यान होता है। ईश्वर का कोई रूप अपने मन में बैठाते हैं। अगर हम निराकार रूप में ईश्वर को भजते हैं, निराकार रूप में देखते हैं तो उसमें भी तो हमें कल्पना करनी होती है दोनों एक ही तो रूप है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम्हें मुझे व्यक्त रूप मंे भजना आसान होगा, अव्यक्त रूप में भजने में थोडी परेशानी आती है। अंत में श्रीकृष्ण अर्जुन को व्यक्त रूप में भजन के लिए प्रेरित करते हैं इससे ध्यान भटकता नहीं है।


श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि हे अर्जुन! अगर तुम्हें दुःखों से मुक्ति चाहिए तो तुम कर्म करो

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